Tuesday, 16 September 2025

किवाड़ की खुली सांकल


 बचपन में हम देखते थे कि घर के पुरुषों के बाहर जाने पर घर की महिलाएं कभी किवाड़ तुरंत बन्द नहीं करती थी, सांकल खुली छोड़ देती थीं। कभी कभी पुरुष कुछ दूर जाकर लौट आते थे, ये कहते हुए कि कुछ भूल गया हूं और मुस्कुरा देते थे दोनों एक दूसरे को देखकर।


एक बार बच्चे ने अपनी मां से पूछ लिया कि मां पापा के जाने के बाद कुछ देर तक दरवाजा क्यों खुला रखती हो??


तब मां ने बच्चे को वो गूढ़ बात बताई जो हमारी सांस्कृतिक विरासत है। उन्होंने बच्चे को कहा कि किवाड़ की खुली सांकल किसी के लौटने की एक उम्मीद होती है। अगर कोई अपना हमसे दूर जा रहा है तो हमे उसके लौटने की उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए। उसका इंतजार जीवन के आखिरी पल तक करना चाहिए! 


आस और विश्वास से रिश्तों की दूरी मिट जाती है, इसीलिए मैं दिल की उम्मीद के साथ दरवाजे की सांकल भी खुली रखती हूं, जब भी वापस आए तो उसे खटकाने की जरूरत नहीं पड़े, वो खुद मन के घर में आ जाए।


जीवन में कुछ बातें हमेशा हमे सीख देती है, कि कोई रिश्तों से नाराज कितना भी हो, उसके लिए दिल के दरवाजे बन्द मत करो। जब कभी उसे आपकी याद आयेगी, उसे आपके पास आना हो तो वो हिचके नही, मस्ती में पूरे विश्वास से बिना कुंडी खटकाए दिल के अन्दर आ जाए।


Sunday, 14 September 2025

जनरल सैम मानेकशॉ से जुड़ा एक क‍िस्सा...फील्ड मार्शल का ड्राइवर


 


जैसा कि हम जानते हैं, ये ड्राइवर आर्मी हेडक्वार्टर्स की ट्रांसपोर्ट कंपनी, धौला कुआँ, दिल्ली से चयनित आर्मी सर्विस कोर के सिपाही होते हैं।

स्वाभाविक है कि सेना प्रमुख (Army Chief) के पास अपनी सरकारी ड्यूटी के लिए एक से अधिक ड्राइवर रहे होंगे। सभी सेवा में लगे सैनिकों की तरह, ड्राइवर को भी हर साल छुट्टी लेने का अधिकार होता है। ऐसे ही एक ड्राइवर थे हरियाणा के निवासी हवलदार श्याम सिंह।

एक दिन जनरल सैम मानेकशॉ, नॉर्थ ब्लॉक में एक बैठक से हँसते हुए बाहर निकले। ड्राइवर, सख्त सावधान की मुद्रा में खड़ा था और उसने तुरंत गाड़ी का दरवाजा खोल दिया। अप्रैल का महीना था – एक सुखद, नरम धूप और हल्की हवा वाला दिन।

“तुम्हें पता है श्याम सिंह,” जनरल ने हँसते हुए कहा, “आज रक्षामंत्री ने मेरा नाम ही बदल दिया। मुझे श्याम कहकर बोले – श्याम, मान भी जाओ।”

जनरल मानेकशॉ का इशारा रक्षामंत्री बाबू जगजीवन राम की उस विनती की ओर था, जो प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कहने पर पूर्वी पाकिस्तान पर अप्रैल में हमले के लिए की गई थी। सैम ने यह कहकर मना कर दिया था कि अगर अप्रैल में हमला हुआ तो भारत को 100% हार मिलेगी।

“वैसे श्याम और सैम में ज्यादा फर्क नहीं है – बस एक H और Y का ही तो खेल है,” जनरल ने मुस्कुरा कर कहा।

जब युद्ध समाप्त हो गया और जनरल मानेकशॉ के रिटायरमेंट की तारीख नजदीक आने लगी, उन्होंने देखा कि श्याम सिंह कुछ असामान्य रूप से तनावग्रस्त रहने लगे हैं। उनके चेहरे पर बेचैनी साफ झलक रही थी, जो जनरल ने तुरंत भांप ली।

“क्या बात है श्याम सिंह, इन दिनों तुम्हारा चेहरा ऐसा लग रहा है जैसे तुम्हारे घर की भैंस ने दूध देना बंद कर दिया हो?”

“नहीं साहब, वो बात नहीं है,” और फिर वह कुछ और बोले बिना चुप हो गए।

दिन बीतते गए और रिटायरमेंट का समय करीब आता गया। एक दिन श्याम सिंह ने जनरल से कहा:

“साहब, एक निवेदन है जो सिर्फ आप ही पूरा कर सकते हैं।”

“हाँ, बोलो श्याम सिंह।”

“साहब, मैं समय से पहले सेवा से निवृत्त होना चाहता हूँ। कृपया मेरी छुट्टी की सिफारिश करें।”

“लेकिन बात क्या है? कोई ज़मीन-जायदाद का मुकदमा है या पारिवारिक परेशानी? तुम अपनी पूरी सेवा पूरी करो। मैं तुम्हें नायब सूबेदार बनवा दूँगा, लेकिन सेवा मत छोड़ो,” जनरल ने समझाया।

“नहीं साहब, बात कुछ और है, लेकिन मैं वह तब तक नहीं बता सकता जब तक सेवा से मुक्त नहीं हो जाता।”

जनरल ने उसकी साफगोई और इज़्ज़त की भावना को समझा और आवश्यक कार्रवाई कर दी। जब ड्राइवर की रिहाई के आदेश आ गए, जनरल ने फिर पूछा:

“अब तो खुश हो? अब बताओ क्यों जल्दी रिटायर हो रहे हो?”

ड्राइवर सावधान मुद्रा में खड़ा हो गया और बोला:

“साहब, आपकी गाड़ी चलाने के बाद मैं किसी और की गाड़ी नहीं चला सकता। यही मेरे जीवन का सबसे बड़ा सम्मान था। मैं इसी इज़्ज़त के साथ घर जाना चाहता हूँ।”

फील्ड मार्शल हँसे और बोले:

“तू बहुत बड़ा बेवकूफ है! तुम हरियाणवी लोग भी ना – एकदम ज़िद्दी और पक्के”

लेकिन अब जब छुट्टी के काग़ज़ बन चुके थे, कुछ नहीं किया जा सकता था। वह तो ठेठ हरियाणवी था – जो मन में ठान ले, फिर पीछे नहीं हटता।

फिर भी जनरल ने एक दिन उससे पूछा:

“रिटायरमेंट के बाद क्या करेगा?”

“कुछ न कुछ कर लूंगा साहब, कोई नौकरी ढूंढ़ लूंगा।”

“तुम्हारे पास खेती की ज़मीन कितनी है?”

“कुछ भी नहीं साहब, मैं तो गरीब परिवार से हूँ।”

जनरल सन्न रह गए। एक निर्धन व्यक्ति, जिसने सिर्फ इसलिए नौकरी छोड़ दी क्योंकि वह किसी और की गाड़ी नहीं चला सकता था।

जिस दिन ड्राइवर विदा हुआ, सैम मानेकशॉ ने उसे एक लिफाफा दिया।

“श्याम सिंह, इसे घर जाकर ही खोलना।”

“जी साहब।” ड्राइवर ने सलाम किया और चला गया।

घर पहुँचकर वह नौकरी ढूँढ़ने में व्यस्त हो गया और लिफाफा भूल ही गया। एक दिन उसे माल ढोने वाले ट्रक की ड्राइवरी का काम मिल गया। फिर एक दिन उसकी पत्नी बोली:

“मैं तुम्हारी आर्मी की वर्दी संदूक में रख रही थी, ये लिफाफा तुम्हारी जेब में मिला।”

“अरे, इसे तो मैं भूल ही गया था। मैंने इसे नहीं खोला क्योंकि मुझे ज्यादा पढ़ना- लिखना नहीं आता।... साहब ने शायद मुझे एक प्रशंसा पत्र दिया होगा, जैसे बड़े अफसर देते हैं।”

“फिर भी, इसे खोलो और स्कूल मास्टरजी से पढ़वा लो, मैं जानना चाहती हूँ इसमें क्या है।”

तो दोनों पति-पत्नी गाँव के स्कूल गए और हेडमास्टर से निवेदन किया कि वह पत्र पढ़कर सुनाएँ।

मास्टरजी ने चश्मा पहना, लिफाफा खोला और काग़ज़ को देखकर चुपचाप रह गए।

“क्या हुआ मास्टरजी, ऐसे क्या देख रहे हैं?” श्याम सिंह ने पूछा।

“क्या तुम्हें पता है ये क्या है?”

“नहीं साहब।”

“यह एक हस्तांतरण पत्र (transfer deed) है।

1971 की जीत के बाद हरियाणा सरकार ने फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ को 25 एकड़ ज़मीन युद्ध जागीर के रूप में दी थी।

उन्होंने वह सारी ज़मीन तुम्हारे नाम कर दी है। अब तुम 25 एकड़ के मालिक हो।”

यह सुनकर पत्नी ने गुस्से में पति को डाँटा:

“तू तो पूरा बेवकूफ निकला! मैं तो इस लिफाफे को चूल्हा जलाने के लिए जलाने ही वाली थी!

भगवान का शुक्र है मैंने पहले पूछ लिया!”

इस तरह यह कहानी है महान जनरल सैम मानेकशॉ की – जिन्होंने अपनी युद्ध जागीर सोनीपत के पास अपने ड्राइवर को दे दी और अपनी फील्ड मार्शल की पेंशन आर्मी विडोज़ वेलफेयर फंड को दान कर दी।

- अलकनंदा स‍िंंह (आजकल रोज एक कहानी पढ़ रही हूं) 

Friday, 5 September 2025

कड़ाह में तलीं, झारियों पर सजीं भंडारे की पूड़ियां


 भंडारे की पूड़ियों पर किसी को प्रबंध-काव्य लिखना चाहिए! लोक में उनकी आसक्ति और प्रभाव इतने व्यापक जो हैं। वे घर में बनाई जाने वाली पूड़ियों से थोड़ी पृथक होती हैं। किंचित लम्बोतर, ललछौंही-भूरी, मुलायम, अधिक अन्नमय, और व्यापक जनवृन्द के क्षुधा-निवारण के प्रयोजन में सिद्ध। 

बहुधा भंडारे की पूड़ियों में घर की गोलमटोल पूड़ियों सरीखे पुड़ नहीं होते, वे अद्वैत-भाव से ही आपकी पत्तल में सिधारती हैं। यों पूड़ी शब्द की उत्पत्ति ही पुड़ से हुई है- जैसे सतपुड़ा यानी सात तहों वाला पर्वत। पूड़ियाँ बेलते समय तो आटे की लोई एक ही पुड़ की, समतल भासती हैं, पर तले जाने पर उसमें दो पुड़े फूल आते हैं। पहला, बाहरी पुड़ा महीन और कोमल, जो जिह्वा को लालायित करता है, और दूसरा, आभ्यन्तर का, अन्न के सत्त्व को अपने में सँजोए, जिससे क्षुधा का उन्मूलन होगा!

किसी धर्मशाला के कक्ष में रसोई करने वाली स्त्रियों द्वारा तारतम्य के संगीत से बेली और तली जाने वाली पूड़ियों का मन को स्निग्ध कर देने वाला दृश्य कभी निहारिए! और फिर पूड़ियों की मियाद चुक जाने पर जूठे हाथ लिए बैठे उसकी बाट जोहते भंडारा-साधकों को देखिए। महाअष्टमी-महानवमी में तो यह पूड़ी-प्रसंग भारत-भूमि में यत्र-तत्र-सर्वत्र सजीव हो उठता है। भंडारों की रामभाजी और पूड़ी पर समस्त संसार का अन्नकूट निछावर है!

मैदा की पूड़ी लचुई या लूची कहलाई है। यह विशेषकर बंगभूमि में प्रचलित है। अवध में यही सोहारी कहलाई है। पूड़ियों का एक रूप बेड़ई या कचौड़ी है, वह उत्तर-मध्य भारत में बनने वाली मूँगदाल की कचौड़ी से भिन्न है। कुछ पूड़ियाँ तो पुरइन के पत्ते जैसी लम्बी-चौड़ी भी होती हैं। भोजपुर-अंचल में वह हाथीकान पूड़ी कहलाई है। यह बड़ी मुलायम होती है और एक पखवाड़े तक ख़राब नहीं होती।

मैं कहूँगा, भारत के निर्धनजन की राम-रसोई में पहली इकाई है- रोटियाँ। सेंक के भूरे-कत्थई ताप-बिंदुओं से सज्जित, किंतु बहुधा बिना घृत-लेपित। उन पर प्रगतिशील कवि-लोग बहुत काव्य रचते हैं। जिस दिन निर्धन का मन इठलाता है, उस दिन वो रोटियों के वर्तुल को त्रिभुज से बदलकर सेंक लेता है पराँठे। किंतु पूड़ियाँ? वे तो पर्वों-उत्सवों का मंगलगान हैं। भारतभूमि में पूड़ियाँ पर्व का पर्याय हैं। पूड़ियाँ नहीं तो पर्व नहीं। पूड़ियाँ तली जा रही हैं तो पर्व ही होगा, कुछ वैसा ही वह संयोग है। वे हिंदू-पर्वों की स्नान-ध्यान वाली सत्त्व-भावना को व्यंजित करती हैं- हल्दी और अजवाइन की पीताम्बरा पूड़ियाँ तो सबसे अधिक!

पूड़ियों की जो सबसे मधुर स्मृति मेरे मन में है, वह इस प्रकार है- अगस्त का महीना! नागदा-दाहोद लाइन पर बारिश की सुरंग के भीतर दौड़ती रेलगाड़ी! फिर मेघनगर में किकोरों के सावन के मध्य उतरना। वहाँ से बस पकड़कर झाबुआ जाना, जहाँ दाहोद से मेरी बुआ राखी मनाने आई होती थी। बुआ हाथ में मेहंदी लगाती थी। मेहंदी रचे हाथ से पूड़ियाँ मुझे खिलाती थी।

संसार में कोमलता का इससे सुंदर चित्र कोई दूसरा नहीं हो सकता कि कोई स्त्री मेहंदी लगे हाथों से आपको पूड़ियाँ खिलाए!

तब इसका क्या करें कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को गर्म नहीं ठंडी पूड़ियाँ ही भाती थीं। कवि अज्ञेय ने स्मृतिलेखा में बताया है कि चिरगाँव में जब भी पूड़ियाँ बनतीं, वे बैठक से ही आवाज़ देते कि चार-छह पूड़ियाँ अलग रखवा देना। इन्हें वे अगली सुबह खाते। कहते कि बासी पूड़ी के बराबर कोई स्वाद नहीं जान पड़ता है।

ऐन यहीं पर मुझको एक पुरानी हिंदी फ़िल्म का संवाद याद आ रहा है, जिसे गुज़रे ज़माने के अभिनेता गोप ने अपनी अदायगी से तब ख़ूब मशहूर बना दिया था। संवाद कुछ यों था- 

"बड़े घरों की औरतें सुबह-सवेरे क्या करती हैं? अजी कुछ नहीं, बस आम के अचार से बासी पूड़ियाँ खाती हैं!"

यह तो हुई बड़े घरों की बात। और छोटे घरों-संकुचित हृदयों की अंतर्कथा? वह प्रेमचंद ने बतलाई है। बूढ़ी काकी- जो पूड़ियों के प्रति अपनी तृष्णा से भरकर जूठी पत्तलों से उनकी खुरचन बटोरकर खाने लगी थीं, जिसे देखकर सन्न रह गई थी गृहस्वामिनी।

ये सब लोक में, आख्यान में, सामूहिक-स्मृति में प्रतिष्ठित पूड़ी-प्रसंग हैं। जनमानस से एकाकार। गृहणियों के मन का प्रफुल्ल-उत्सव। पूड़ियाँ न होतीं तो पर्व नहीं हो सकते थे, पर्व मनाने वाले मन पुलक से नहीं भर सकते थे- तिस पर कड़ाह में तलीं, झारियों पर सजीं भंडारे की पूड़ियों की तो बात ही क्या। 


- अलकनंदा 'पूड़ी बाज' 

Sunday, 31 August 2025

ब्रजभूमि के दिव्य संत: श्री विनोद बिहारी दास बाबा जी


 बाबा का पूर्व नाम विनय कुमार था। उनका जन्म 1947 में एक ब्राह्मण परिवार में पिता श्री दाम और माता लावण्या के यहाँ हुआ था। 

वे तीन भाई थे। उनके माता-पिता की मृत्यु के बाद, उन्हें छोड़ दिया गया था, उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था। वे कुछ छोटी-छोटी नौकरियों की तलाश में या सिर्फ भोजन और पानी की तलाश में सड़कों पर घूमते रहते थे। वह बाबा के जीवन का सबसे कठिन समय था। वह 8-10 साल का था और उसे इतनी कम उम्र में अस्वीकृति, निंदा और मानव के अमानवीय पक्ष का सामना करना पड़ा था। उन्हें कई दिनों तक भूखा रहना पड़ा और वे उन महिलाओं के प्रति आभारी थे जिन्होंने उन्हें एक रोटी या मुट्ठी भर चावल भी दिए।

विनोद बिहारी दास बाबा याद करते हैं कि एक बूढ़ी औरत अपने घर नहीं जाने पर गुस्सा हो जाती थी और पहले उसे कहती थी कि चले जाओ और कभी वापस मत आना। लेकिन जैसे ही बाबा अपनी पीठ फेरते, वह और भी क्रोधित हो जाती और कहती "देखो! वह कितना अभिमानी है! वह जाने की हिम्मत करता है!"

विनोद बिहारी दास बाबा को यकीन नहीं था कि किसे अपना गुरु बनाया जाए, लेकिन उन्होंने कीर्तन मंडलों द्वारा गाए गए हरे कृष्ण महामंत्र को सुना था। इसलिए वह दिन-रात, हर समय महामंत्र का जप करने लगे। अब बाबा छुट्टियों में तीर्थ स्थानों पर जाने लगे। उन्होंने शास्त्रों में वृंदावन के बारे में पढ़ा था और उस समय ब्रज में रहने वाले कुछ उच्च साधुओं के बारे में सुना था। इसलिए वे कुछ दिनों के लिए वृंदावन आए 

वह उन साधुओं को खोजने लगे जो घने जंगल में रहते थे (ब्रज धाम उस समय भी जंगलों से भरा हुआ था) और दृढ़ निश्चयी थे। इस तरह, उन्होंने श्री किशोरीकिशोरानंद दास बाबा, जिन्हें श्री तीनकौड़ी  गोस्वामी के नाम से भी जाना जाता है, से मुलाकात की। वह अपने पूर्ण त्याग के  प्रति आकर्षित थे। श्री तीनकौड़ी  गोस्वामी जी कभी किसी आश्रम में नहीं रहे, हालांकि उनके शिष्यों ने उनके नाम पर कई आश्रम और मंदिर बनवाए। 

श्री तीनकौड़ी  गोस्वामी जी घने जंगलों में रहना पसंद करते थे, वह बहुत कम बोलते थे कुछ भी नहीं खाते थे (वह भी केवल फलाहार) और दिन-रात हरिनाम जप में तल्लीन रहते थे , इतना कि उसे लोगों से पूछना पड़ता था कि दिन है या रात लेकिन विनोद बिहारी दास बाबा खुद इस तरह के पूर्ण त्याग के मूड में नहीं थे, इसलिए वे कोलकाता वापस चले गए और छुट्टियों में ब्रज धाम और श्री तीनकोड़ी गोस्वामी के दर्शन किए। बाबा ने अपने घर में ही त्यागी जीवन शैली का अभ्यास किया। वह बहुत कम खाते थे कुछ दिनों के लिए अनाज खाना छोड़ देते थे। और वह हर समय हरिनाम का जप करने लगे।

श्री तीनकौड़ी  गोस्वामीजी द्वारा विनोद बिहारी दास बाबा को दीक्षा दी गई और उन्हें बाबाजी वेश भी दिया गया। गोस्वामीजी के साथ त्यागी जीवन बहुत कठिन और सख्त था। गोस्वामीजी कभी एक स्थान पर कुछ दिनों के लिए तो कभी कुछ महीनों के लिए रहते थे। उनका स्वभाव ऐसा ही था, वे अचानक अपने आसन से उठ जाते थे, यह तय कर लेते थे कि वे एक अलग जगह पर जाना चाहते हैं, और चलना शुरू कर देते और  ऐसे स्थान का चयन करेंगे जहाँ साँप, बिच्छू और भूत रहते हों, ताकि स्थानीय लोग उन्हें बार-बार परेशान करने न आएँ।

गोस्वामीजी अपने शिष्यों के लिए मध्यरात्रि में 2 बजे जागने और जल्दी स्नान करने और खुद को ताज़ा करने के बाद कीर्तन में शामिल करते और उस समय वे अपने व्यक्तिगत भजन के लिए जाते थे। लेकिन शायद वह चाहते थे कि विनोद बिहारी दास बाबा अध्यात्म की चरम ऊंचाईयों पर चढ़ें। ऐसा करने के लिए वे चाहते थे कि बाबा की नींद भी कम कर दें। 

एक बार गोस्वामीजी ने बाबा को 1 बजे तक जगाए रखा। तब बाबा ने पूछा कि क्या वह सो सकते हैं। गोस्वामीजी ने उत्तर दिया, "अब?! यह तो जागने का समय है, सोने का नहीं।" तो, बाबा इस तरह नींद से भी वंचित हुए, हालांकि उन्होंने स्वीकार भी किया कि वे इस वजह से जप के दौरान सो गए थे। लेकिन उन्होंने कभी शिकायत नहीं की। वह जानते थे कि उन्हें प्रशिक्षित किया जा रहा है। आखिरकार, उसे इसकी आदत हो गई और ज्यादा नींद नहीं आई।

इस तरह विनोद बिहारी दास बाबा ने गुरु गोस्वामीजी के पास रहकर सेवा और साधना की। बाबा ने आखिरकार 2006 से बरसाना के पीलीपोखर में अपने आश्रम (प्रिया कुंज आश्रम नाम) में राधा रानी की दिव्य सेवा के तहत शरण ली। 

विनोद बिहारी दास बाबा न केवल श्री धाम बरसाना के निवासियों के लिए, बल्कि दुनिया भर में पतित आत्माओं के लिए भी दया के स्रोत हैं। उनकी अकारण कृपा से कोई भी दूर नहीं है यहाँ तक कि जानवर भी ... श्री जी महल के रास्ते में बंदरों पर बाबा का प्यार बरसता है। श्रीमहल के ऊँची अटारी में प्रत्येक शाम को विभिन्न विषयों पर उनके सत्संग से बहुत लाभ प्राप्त हो सकता है। 

विनोद बिहारी दास बाबा भक्ति की बहुत कठिन अवधारणाओं को इतने सरल तरीके से प्रस्तुत करते हैं कि कोई भी उनके दिव्य सत्संग से सीख सकता है। वह शास्त्रों के अपने गहरे ज्ञान से चीजों का हवाला देते थे और फिर उसे उस तरह से समझाते थे जिसे आप आसानी से समझ सकते हैं। बाबा श्री श्री राधामाधव सरकार की ओर दिव्यता और भावनाओं की नदी का उद्गम करते हैं जिसमें हर कोई स्नान कर सकता है।

- ब्रजभाषा के कव‍ि श्री अशोक अज्ञ की फेसबुक वॉल से साभार 

Tuesday, 26 August 2025

एक कहानी जो बचपन में सुनी थी


 एक समय की बात है, एक राजा ने निश्चय किया कि वह प्रतिदिन 100 अंधे लोगों को खीर खिलाएगा। एक दिन एक साँप ने खीर वाले दूध में मुँह डालकर उसमें ज़हर मिला दिया। ज़हरीली खीर खाने से सभी 100 अंधे मर गए। राजा को बहुत चिंता हुई कि कहीं उसे 100 लोगों की हत्या का पाप न लग जाए। चिंता में डूबा राजा अपना राज्य छोड़कर जंगलों में भक्ति करने चला गया ताकि उसे इस पाप की क्षमा मिल सके। रास्ते में एक गाँव पड़ा।

राजा ने सभा भवन में बैठे लोगों से पूछा कि क्या गाँव में कोई ऐसा परिवार है जो भक्ति भाव रखता हो, ताकि वह उनके घर रात बिता सके।

चौपाल में बैठे लोगों ने बताया कि इस गाँव में दो भाई-बहन रहते हैं जो बहुत पूजा-पाठ करते हैं। राजा उनके घर रात रुके।

जब राजा सुबह उठे तो लड़की पूजा के लिए बैठी थी। पहले लड़की की दिनचर्या यह थी कि वह पौ फटने से पहले ही पूजा से उठकर नाश्ता तैयार कर लेती थी।

लेकिन उस दिन लड़की पूजा में बहुत देर तक बैठी रही। जब लड़की उठी, तो उसके भाई ने कहा, बहन, तुम इतनी देर से उठी हो। हमारे घर एक मुसाफिर आया है और उसे नाश्ता करके बहुत दूर जाना है।

लड़की ने उत्तर दिया, भाई, ऊपर एक पेचीदा मामला था। धर्मराज को एक पेचीदा स्थिति पर निर्णय लेना था और मैं उस निर्णय को सुनने के लिए रुकी थी। इसलिए मैं बहुत देर तक ध्यान करती रही।

तो उसके भाई ने पूछा कि क्या बात है? तो लड़की ने बताया कि एक राज्य का राजा अंधे लोगों को खीर खिलाता था। लेकिन दूध में साँप के ज़हर डालने से 100 अंधे लोग मर गए। अब धर्मराज समझ नहीं पा रहे हैं कि अंधे लोगों की मृत्यु का पाप राजा पर हो, साँप पर या उस रसोइए पर जिसने दूध खुला छोड़ दिया।

राजा भी सुन रहा था। राजा को उससे जुड़ी कुछ बातें सुनकर दिलचस्पी हुई और उन्होंने लड़की से पूछा कि फिर क्या फैसला हुआ?

लड़की ने कहा कि अभी कोई फैसला नहीं हुआ है। तो राजा ने पूछा, क्या मैं तुम्हारे घर एक रात और रुक सकता हूँ? दोनों भाई-बहन ने खुशी-खुशी हाँ कह दी।

राजा अगले दिन रुक गए, लेकिन चौपाल में बैठे लोग दिन भर यही चर्चा करते रहे कि जो व्यक्ति कल हमारे गाँव में एक रात रुकने आया था और भक्ति भाव से घर माँग रहा था, उसकी भक्ति का नाटक उजागर हो गया है।

वह रात बिताने के बाद इसलिए नहीं गया क्योंकि उस व्यक्ति की नीयत युवती को देखकर खराब हो गई थी। इसलिए अब वह उस सुंदर और युवती के घर ज़रूर रुकेगा, वरना वह युवती को लेकर भाग जाएगा।

सभा भवन में दिन भर राजा की आलोचना होती रही।

अगली सुबह युवती फिर ध्यान के लिए बैठी और नियमित समय पर उठी। तब राजा ने पूछा- "बेटी, अंधे लोगों की हत्या का पाप किसने लगाया था?"

तब लड़की बोली- "वह पाप हमारे गाँव की चौपाल में बैठे लोगों ने बाँटकर ले लिया।"

सारांश:~ दूसरों की आलोचना करने से कितना नुकसान होता है? आलोचक हमेशा दूसरों के पापों को अपने सिर पर ढोता है और दूसरों द्वारा किए गए उन पापों का फल भी भोगता है। इसलिए हमें हमेशा आलोचना करने से बचना चाहिए..!!

Monday, 18 August 2025

दीवारों पर लिखती हुई इन स्त्रियों ने बचा रखा है संसार

आज एक च‍ित्र देखा तो सोचा आपसे शेयर करूं। देख‍िए इस च‍ित्र को और इसमें रंग भरने वाली हमारी उस पीढ़ी को जो आज के बदलावों से बेखबर अपना कर्तव्य पूरा क‍िये जा रही है।  

इस पर एक कव‍िता भी है हालांक‍ि ये मेरी रचना नहीं है परंतु कहीं पढ़ी है, अच्छी लगी..  

सो-- आप भी पढ़‍िएगा--- 


गेरू से

भीत पर लिख देती है

बाँसबीट

हारिल सुग्गा

डोली कहार

कनिया वर

पान सुपारी

मछली पानी

साज सिंघोरा

पउती पेटारी


अँचरा में काढ़ लेती है

फुलवारी

राम सिया

सखी सलेहर

तोता मैना


तकिया पर

नमस्ते

चादर पर

पिया मिलन


परदे पर

खेत पथार

बाग बगइचा

चिरई चुनमुन

कुटिया पिसीआ

झुम्मर सोहर

बोनी कटनी

दऊनि ओसऊनि

हाथी घोड़ा

ऊँट बहेड़ा


गोबर से बनाती है

गौर गणेश

चान सुरुज

नाग नागिन

ओखरी मूसर

जांता चूल्हा

हर हरवाहा

बेढ़ी बखाड़ी


जब लिखती है स्त्री

गेरू या गोबर से

या

काढ़ रही होती है

बेलबूटे

वह

बचाती है प्रेम

बचाती है सपना

बचाती है गृहस्थी

बचाती है वन

बचाती है प्रकृति

बचाती है पृथ्वी


संस्कृतियों की

संवाहक हैं

रंग भरती स्त्रियाँ


लिखती स्त्री

बचाती है सपने

संस्कृति और प्रेम।


स्त्री के मनोभावों को बख़ूबी बयान करती ये सुंदर रचना ज‍िसने भी ल‍िखी है उसने पूरा यथार्थ उतार कर रख द‍िया। हमारी माताएं ऐसी ही थीं। जो शायद अब गुम हैं किसी फ्रेम में, किसी घर के कोने में शायद इन चीजों से मुक्त होती आज की स्त्री।दिखती हैं मॉल में, पार्क में, ऑफिस में और संघर्ष का रूप बदल गया।अब खुद के लिए आत्मनिर्भर होती स्त्री। ये परिवर्तन शायद ले गया सब। 

मगर ऐसी परंपराएं सदैव ही जीवित रहनी चाहिए, भूत वर्तमान और भविष्य सब-कुछ भीत पर उकेरकर स्त्रियां इन्हें बचाए रखती हैं।

आजकल सब शहर की तरफ भाग रहे वहीं रहना भी पसंद है उनको, ये सब चित्र टाइल्स और पत्थर लगी दीवारों में कैसे बनेंगे वो भी गोबर से अगर बन भी जाएं तो कोई बनाना बनवाना भी पसंद नहीं करता दीवार खराब लगेगी उसको, अपने गांव में सही था हरछठ व्रत में हमेशा बनती थी, धीमे ही सही लेकिन लोग अपनी संस्कृतियों को ही भूल रहे हैं।

मेरी सासु मां भी ऐसी ही माएं-देवता की आकृत‍ियां शाद‍ियों बनाती हैं , अब उन्होंने मेरी बेटी के पास एक कागज पर सारी आकृत‍ियां सुरक्ष‍ित उतरवा दी हैं ताक‍ि यह प्रथा उनके बाद भी जीव‍ित रहे। 

- Legend News 

Tuesday, 17 June 2025

मुस्‍लिम उपन्यासकार ख़ालिद जावेद ने क्यों कहा, हिंदू धर्म में लचीलापन है


 हिंदू धर्म के चरित्रों को आधार बनाकर साहित्य लेखन में समय समय पर विभिन्न प्रयोग किए जाते रहे हैं और अब भी हो रहे हैं लेकिन इस्लाम धर्म में ऐसी कोई परंपरा नहीं पाए जाने की वजह पूछे जाने पर उर्दू के जाने माने उपन्यासकार ख़ालिद जावेद कहते हैं कि इस्लाम धर्म में कहानी कहने के लिए ज़मीन ही नहीं है।

2014 में लिखे गए अपने उपन्यास ‘नेमतखाना’ (द पैराडाइज आफ फूड) के लिए हाल ही में वर्ष 2022 के प्रतिष्ठित जेसीबी पुरस्कार से सम्मानित ख़ालिद जावेद ने ‘भाषा’ को दिए विशेष साक्षात्कार में यह बात कही।
अमीश त्रिपाठी, देवदत्त पटनायक जैसे लेखकों द्वारा हिंदू महाकाव्य रामायण और महाभारत के चरित्रों को आधार बनाकर उपन्यासों की रचना की पृष्ठभूमि में ख़ालिद जावेद से जब यह सवाल किया गया कि इस प्रकार के प्रयोग इस्लाम धर्म के साथ क्यों नहीं किए गए तो उनका कहना था, ‘‘हिंदू धर्म, पूरा का पूरा धर्म होने के साथ ही जीवन शैली भी है। हिंदू धर्म आचार संहिता नहीं है बल्कि वह एक संस्कृति है। भारतीय दर्शन और उसके सभी छह स्कूल पूरी तत्व मीमांसा और ज्ञान मीमांसा की सांस्कृतिक मूल के साथ व्याख्या करते हैं। इसके चलते हिंदू धर्म में लचीलापन है। उसमें चीजों को ग्रहण करने की बहुत बड़ी शक्ति हमेशा से मौजूद रही है।’’ 
उन्होंने आगे कहा, ‘‘हिंदू धर्म उस तरह का धर्म नहीं है जो कानूनी एतबार से चले। इसके भीतर मानवीय मूल्य, सांस्कृतिक तत्वों के साथ मिलकर सामने आते हैं। ऐसी जगह पर कहानी कहने के लिए ज़मीन पहले से मौजूद होती है। ’’ 
जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रोफेसर ख़ालिद जावेद कहते हैं, ‘‘इस्लाम में आचार संहिता बहुत ज्यादा है । कुछ नियम बनाए गए हैं । सांस्कृतिक तत्व बहुत कम नजर आते हैं। इस्लाम में मेले ठेले, अगर ईद को छोड़ दें तो सांस्कृतिक परिदृश्य बहुत कम नजर आएगा। एक खास तरह से कुछ नियमों के ऊपर आपको चलना है।’’
वह कहते हैं, ‘‘इस्लाम के अपने खास नियम हैं। उन्हें तोड़ना बहुत मुश्किल है। वहां कहानी कहने के लिए जमीन ही नहीं है। उसके चरित्र ही इस तरह के नहीं हैं जिसके भीतर एक किरदार बनने की संभावनाएं पाई जाती हों। इस्लाम के चरित्र इतने ठोस हैं कि उनमें इस तरह का कहानी का चरित्र बनने के लिए, कल्पनाशीलता के लिए गुंजाइश बहुत कम है।’’
‘एक खंजर पानी में’,‘आखिरी दावत’, ‘मौत की किताब’, और ‘नेमतखाना’ के लेखक ख़ालिद जावेद विभिन्न पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं और न केवल भारत बल्कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में बड़े चाव से पढ़े जाते हैं ।
सोशल मीडिया के जमाने में साहित्य पर मंडराते खतरों के संबंध में ख़ालिद जावेद ने कहा, ‘‘लॉकडाउन में साहित्यिक वेबसाइटों में इजाफा हुआ, सब कुछ ऑनलाइन था तो साहित्य भी। लेकिन प्रिंट मीडिया की दीर्घकालिक संदीजगी ज्यादा होती है। ऑनलाइन में तथाकथित स्वतंत्रता के चलते गुणवत्ता प्रभावित होती है। ’’
एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, ‘‘अदब (साहित्य) का गंभीर सौंदर्य शास्त्र होता है। आज के पाठक को अगर कोई लेखक या रचना समझ नहीं आती है तो इसकी वजह ये है कि पाठक की ग्रूमिंग ठीक से नहीं हो रही है। आवामी अदब (लोकप्रिय साहित्य), संजीदा अदब (गंभीर साहित्य) से अलग है। हमारे ज़माने में अदब का काम किसी पाठक की तरबीयत (प्रशिक्षण) करना था। ठीक है, आज पाठक अगर गुलशन नंदा पढ़ रहा है तो धीरे धीरे उसकी ऐसी ट्रेनिंग होती थी कि इन्हीं पाठकों ने आगे चलकर कुर्रतुल एन हैदर को पढ़ा, मंटो को पढ़ा, बेदी को पढ़ा, यशपाल को पढ़ा, मुक्तिबोध और निर्मल वर्मा को पढ़ा। अब ये प्रशिक्षण खत्म हो गया है। लोकप्रिय चीजें अंतरदृष्टि पैदा नहीं करती हैं, तात्कालिक खुशी देती हैं। गंभीर साहित्य आपको अंतरदृष्टि प्रदान करता है।’’
ख़ालिद जावेद ने आगे कहा, ‘‘इसीलिए गंभीर साहित्य को सबसे बड़ा खतरा पत्रकारिय लेखन से है। अदब के नाम पर, साहित्य के नाम पर रिपोर्टिंग कर दी जाती है, और फिर उस रिपोर्टिंग को उपन्यास बना दिया जाता है। सामाजिक यथार्थ को ठीक वैसे का वैसा ही पेश कर दिया जाता है। साहित्य की राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक चिंताएं होती हैं लेकिन इन्हें प्लेट में रखकर अखबार वालों की तरह पेश नहीं किया जाता। इसी से असल साहित्य को लगातार खतरा बना हुआ है। ये पिछले बीस पच्चीस साल से हो रहा है। उर्दू साहित्य का सूरते हाल भी यही है।”
उर्दू साहित्य में गंभीर लेखन संबंधी एक सवाल पर वह कहते हैं, ‘‘प्रेमचंद हिंदी और उर्दू अदब के बाबा आदम हैं। इसी ज़बान में मंटो हैं, किसी और ज़बान ने कोई दूसरा मंटो पैदा नहीं किया। राजेन्द्र बेदी हैं, कृष्ण चंदर हैं, इंतजार हुसैन हैं। ये उर्दू साहित्य की एक पूरी समृद्ध विरासत है। लेकिन आज पूरे साहित्यिक परिदृश्य पर बुरा वक्त है। उर्दू साहित्य भी उससे अछूता नहीं है। ऐसा लिखा जा रहा है जो बहुत जल्दी से समझ में आ जाए। जो बहुत जल्द समझ में आ जाए, उसे इंसान को शक की नजर से देखना चाहिए।’’
अपने लेखन में इंसान की अस्तित्ववादी उलझनों से अधिक सरोकार रखने वाले जावेद अपने नए उपन्यास के बारे में पूछे जाने पर कहते हैं,‘‘अभी तो किसी विषय ने मुझे नहीं चुना है। एक उपन्यास अभी खत्म किया है, बड़ा उपन्यास है। साढ़े चार सौ पन्नों का- उसका शीर्षक है ‘अर्थलान और बैजाद’। यह स्वप्न, भ्रम, वास्तविकता के बीच की सरहदों को तोड़ता है। इतिहास, तारीख से बहस करता है। तारीख जो ख्वाब देखकर भूल गई है, ये उन सपनों तक पहुंचने की कोशिश है।’’
Compiled: Legend News
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